Friday, June 13, 2008

पुलिस थानों में क्यों नहीं लिखी जातीं एफआईआर

जब किसी चोरी की एफआईआर दर्ज कराने को लेकर एक वकील और पत्रकार व्यथित हो तो उस आम आदमी की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है जिसे अपने साथ हुये किसी अपराध की एफआईआर दर्ज कराने के लिये कितने पापड बेलने पडते हैं। अभी अभी पढ़ा कि मुरैना के ब्लॉगर,पत्रकार,वकील श्रीनरेन्द्र सिंह तोमर के यहां चोरी हुई और उनकी चोरी की एफआईआर उनके पोस्ट लिखने तक दर्ज नहीं की गई थी। हालांकि हम कह सकते हैं कि नरेन्द्र जी वकील हैं तो एफआईआर दर्ज न होने पर आगे की कार्यवाही कर सकते हैं (शायद करेंगे भी)। उनके अनुसार वे वरिष्ठ अधिकारियों को अवगत करा भी चुके हैं और शायद सुनवाई न होने पर कोर्ट की शरण लें। परंतु समस्या नरेन्द्र जी की ही नहीं है उन लोगों की भी है जो प्रतिदिन अपनी समस्याओं को लेकर थानों के चक्कर लगाते हैं परंतु उनकी एफआईआर दर्ज करने को लेकर पुलिसकमीZ तरह-तरह के बहाने बनाकर उनको लौटाते रहते हैं। हालात ये हैं कि कोई आम आदमी बिना किसी सम्पर्क और संबंधों के, या बिना कुछ लिये-दिये पुलिस थानों में एफआईआर दर्ज नहीं करा सकता। पहले से ही किसी अपराधी से त्रस्त व्यक्ति को घण्टों खड़ा रखा जाता है, उसे कहा जाता है कि साहब थाने में नहीं हैं जब वे आ जायेंगे तब एफआईआर लिखी जायेगी। साहब आ जाते हैं तो उस व्यक्ति को एक कागज थमा दिया जाता है जिसमें उससे घटना का ब्यौरा देने को कहा जाता है और फिर ``पहले मुआयना करेंगे फिर एफआईआर दर्ज की जायेगी´´ कह कर थाने से भगा दिया जाता है।

पहले मुआयना क्यों एफआईआर क्यों नहीं ? के जवाब में पुलिस अधिकारी कहते हैं कि लोग अक्सर झूठी रिपोर्ट दर्ज कराते हैं इसलिये सीधे उनकी एफआईआर नहीं दर्ज की जाती।

हो सकता है ये बात कुछ हद तक ठीक हो लेकिन इसका हल तो ये है कि यदि ये पाया जाये कि रिपोर्ट झूठी दर्ज कराई गई है तो उसके खिलाफ झूठी रिपोर्ट दर्ज कराने का प्रकरण कायम किया जाये। एफआईआर ही दर्ज नहीं की जाती ये कौन सा नियम है।

दण्ड प्रक्रिया संहिता की किसी धारा में ये नहीं लिखा हुआ कि कोई अपराध हुआ है या नहीं इसकी जांच करने के बाद ही एफआईआर दर्ज की जाये। हां दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 157 (ख) में यह जरूर है कि यदि पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को यह प्रतीत होता है कि अन्वेषण करने के लिये पर्याप्त आधार नहीं हैं तो वह उस मामले का अन्वेषण न करेगा। लेकिन इसके साथ ही धारा 157 (2) में दिया गया है कि उपधारा (1) के परन्तुक के खण्ड (क) और (ख) में वर्णित दशाओं में से प्रत्येक दशा में पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी अपनी रिपोर्ट में उस उपधारा की अपेक्षाओं का पूर्णतया अनुपालन न करने के अपने कारणों का कथन करेगा और उक्त परन्तुक के खण्ड (ख) में वर्णित दशा में ऐसा अधिकारी इत्तिला देने वाले को, यदि कोई हो, ऐसी रीति से, जो राज्य सरकार द्वारा विहित की जाये, तत्काल इस बात की सूचना दे देगा कि वह उस मामले में अन्वेषण न तो करेगा और न करायेगा।

और यहां ये बिलकुल स्पष्ट है कि पहले एफआईआर दर्ज की जायेगी जांच उपरांत अगर जांच अधिकारी को ये लगता है कि अन्वेषण के लिये पर्याप्त आधार नहीं हैं तो आगे की जांच नहीं की जायेगी परंतु उसके भी कारणों का उल्लेख किया जायेगा।

सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने एक आदेश में स्पष्ट कहा है कि पुलिस थानों में किसी अपराध की इत्तला की एफआईआर तुरंत दर्ज की जायेगी और पीडित व्यक्ति से कोई लिखित आवेदन लेकर औपचारिकता नहीं की जायेगी।

सही बात ये है कि सभी थाना प्रभारी इस बात से सतर्क रहते हैं कि उनके थाना क्षेत्रों में कम अपराध घटित हों और इसके लिये वे अपराध रोकने का कार्य करने की अपेक्षा अपराधों का रिकार्ड न रखने में सावधानी बरतते हैं। जब एफआईआर दर्ज नहीं होंगी तो उनके क्षेत्र में अपराध कम दिखाई देंगे और वरिष्ठ अधिकारियों की कुपित नजरें उस क्षेत्र के थाना प्रभारियों पर नहीं उठेंगी। दूसरे बिना दर्ज किये अपराधों में लेन देन की गुंजाइश अधिक बनी रहती है और वो भी दोनों पक्षों से। चूंकि एफआईआर दर्ज होने के बाद पुलिसकर्मियों पर दबाव रहता है कि कार्यवाही क्यों नहीं की गई इसलिये वे एफआईआर ही दर्ज नहीं करते और वरिष्ठ अधिकारी प्रतिवर्ष अपने कार्यकाल का ब्यौरा छाती ठोक कर देते हैं कि उनके कार्यकाल में अपराधों की संख्या में कमी आई है जबकि उसका कारण अपराधों का कम होना नहीं अपराधों का दर्ज न होना होता है।