Saturday, July 12, 2008

अगर तलवार निर्दोष हैं तो जेलों में बंद लाखों अभियुक्त भी निर्दोष हो सकते हैं

आरूषी प्रकरण में आरूषी के पिता राजेश तलवार को बेकसूर बता कर सीबीआई ने कुछ और साबित भले ही न किया हो ये जरूर साबित कर दिया कि हमारी पुलिस की विवेचना का स्तर क्या है। बिना किसी सबूत के बेटी की हत्या में पिता को हत्यारा घोषित कर, उसको आरोपी बनाकर नोयडा पुलिस ने पुलिसिया कार्यप्रणाली पर पहले से लगा हुआ प्रश्नचिन्ह और बड़ा कर दिया है।

भारतीय पुलिस की विवेचना की विशेषता ही यह है कि उपलब्ध सबूतों के आधार पर अपराधी नहीं खोजती बल्कि पहले अपराधी का निर्धारण करती है फिर उसके खिलाफ सबूत ढूंढती है। मिल जायें तो ठीक नहीं तो सबूत पैदा किये जाते हैं आखिर अदालत में कुछ तो दिखाना ही होता है। हम कह सकते हैं कि किसी भी अपराध में अपराधी खोज कर उसके गले के नाप का फंदा तैयार नहीं किया जाता बल्कि पहले फंदा तैयार किया जाता है फिर उसके साइज का अपराधी ढूंढा जाता है जिसके गले में फिट बैठ जाये वही अपराधी।

सवाल ये उठता है कि सारे साधन होने के बाद भी आखिर पुलिस विभाग के जांच अधिकारी क्यों लापरवाही बरतते हैं ? क्यों उन्हें ये नहीं बताया जाता कि भारतीय न्याय प्रणाली का मूल सिद्धांत ये है कि भले ही सौ अपराधी बच जाये परंतु किसी निरपराध को सजा नहीं होनी चाहिये। परंतु पुलिसिया कार्यप्रणाली की बदौलत होता इसका उलटा है, अपराधी तो बचे ही रहते हैं सजा अक्सर निर्दोषों को ही होती है। पुलिस कर्मियों का इससे कोई लेना देना नहीं होता कि अपनी लापरवाही के चलते वे जिस एक को आरोपी बनाकर कोर्ट में पेश कर रहे हैं सजा उससे जुड़े कई लोगों को भुगतनी पड़ती है।

क्या अब वो समय नहीं आ गया है जब मृत्युदंड और आजीवन कारावास जैसे दण्डों वाले अपराधों की जांच पुलिस विभाग से छीन कर किसी सीबीआई जैसी जांच एजेंसी से कराई जाना चाहिये। और पुलिस विभाग को छोटे अपराधों या शांति व्यवस्था बनाये रखने के साथ सिर्फ यातायात व्यवस्था बनाये रखने तक सीमित कर देना चाहिये।

अगर देखा जाये तो सीबीआई से कहीं अधिक अनुभव पुलिसकर्मियों के पास होता है, सीबीआई को तो कभी कभी इन अपराधों की विवेचना करनी पड़ती है जबकि पुलिस का वास्ता रोज ही ऐसे अपराधों से होता है परंतु फिर भी क्यों हमेशा ही पुलिस से चूक होती है। जैसे तैसे किसी प्रकरण में पुलिस वास्तविक अपराधी को पकड़ भी लेती है तो उसके खिलाफ ऐसे सबूत एकत्रित नहीं किये जाते जो कोर्ट में उस अपराध को निर्विवाद साबित कर सकें।

राजेश तलवार तकदीर के धनी थे जो मीडिया की मेहरबानी से सीबीआई जांच के बाद बच गये, कितने अभियुक्त हैं जिन्हें तलवार जैसी तकदीर मिली होती है। अगर सीबीआई जांच नहीं होती तो राजेश तलवार को एक ऐसे अपराध की सजा मिलती जो उन्होंने कभी किया ही नहीं था साथ ही बेटी के कत्ल का कलंक लेकर कैसे कोई पिता अपनी बाकी जिंदगी बिता सकता था। और इस लापरवाही के लिये जिम्मेदार पुलिस के लिये कोई सजा हमारे कानून में नहीं बनाई गई।

Friday, June 13, 2008

पुलिस थानों में क्यों नहीं लिखी जातीं एफआईआर

जब किसी चोरी की एफआईआर दर्ज कराने को लेकर एक वकील और पत्रकार व्यथित हो तो उस आम आदमी की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है जिसे अपने साथ हुये किसी अपराध की एफआईआर दर्ज कराने के लिये कितने पापड बेलने पडते हैं। अभी अभी पढ़ा कि मुरैना के ब्लॉगर,पत्रकार,वकील श्रीनरेन्द्र सिंह तोमर के यहां चोरी हुई और उनकी चोरी की एफआईआर उनके पोस्ट लिखने तक दर्ज नहीं की गई थी। हालांकि हम कह सकते हैं कि नरेन्द्र जी वकील हैं तो एफआईआर दर्ज न होने पर आगे की कार्यवाही कर सकते हैं (शायद करेंगे भी)। उनके अनुसार वे वरिष्ठ अधिकारियों को अवगत करा भी चुके हैं और शायद सुनवाई न होने पर कोर्ट की शरण लें। परंतु समस्या नरेन्द्र जी की ही नहीं है उन लोगों की भी है जो प्रतिदिन अपनी समस्याओं को लेकर थानों के चक्कर लगाते हैं परंतु उनकी एफआईआर दर्ज करने को लेकर पुलिसकमीZ तरह-तरह के बहाने बनाकर उनको लौटाते रहते हैं। हालात ये हैं कि कोई आम आदमी बिना किसी सम्पर्क और संबंधों के, या बिना कुछ लिये-दिये पुलिस थानों में एफआईआर दर्ज नहीं करा सकता। पहले से ही किसी अपराधी से त्रस्त व्यक्ति को घण्टों खड़ा रखा जाता है, उसे कहा जाता है कि साहब थाने में नहीं हैं जब वे आ जायेंगे तब एफआईआर लिखी जायेगी। साहब आ जाते हैं तो उस व्यक्ति को एक कागज थमा दिया जाता है जिसमें उससे घटना का ब्यौरा देने को कहा जाता है और फिर ``पहले मुआयना करेंगे फिर एफआईआर दर्ज की जायेगी´´ कह कर थाने से भगा दिया जाता है।

पहले मुआयना क्यों एफआईआर क्यों नहीं ? के जवाब में पुलिस अधिकारी कहते हैं कि लोग अक्सर झूठी रिपोर्ट दर्ज कराते हैं इसलिये सीधे उनकी एफआईआर नहीं दर्ज की जाती।

हो सकता है ये बात कुछ हद तक ठीक हो लेकिन इसका हल तो ये है कि यदि ये पाया जाये कि रिपोर्ट झूठी दर्ज कराई गई है तो उसके खिलाफ झूठी रिपोर्ट दर्ज कराने का प्रकरण कायम किया जाये। एफआईआर ही दर्ज नहीं की जाती ये कौन सा नियम है।

दण्ड प्रक्रिया संहिता की किसी धारा में ये नहीं लिखा हुआ कि कोई अपराध हुआ है या नहीं इसकी जांच करने के बाद ही एफआईआर दर्ज की जाये। हां दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 157 (ख) में यह जरूर है कि यदि पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को यह प्रतीत होता है कि अन्वेषण करने के लिये पर्याप्त आधार नहीं हैं तो वह उस मामले का अन्वेषण न करेगा। लेकिन इसके साथ ही धारा 157 (2) में दिया गया है कि उपधारा (1) के परन्तुक के खण्ड (क) और (ख) में वर्णित दशाओं में से प्रत्येक दशा में पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी अपनी रिपोर्ट में उस उपधारा की अपेक्षाओं का पूर्णतया अनुपालन न करने के अपने कारणों का कथन करेगा और उक्त परन्तुक के खण्ड (ख) में वर्णित दशा में ऐसा अधिकारी इत्तिला देने वाले को, यदि कोई हो, ऐसी रीति से, जो राज्य सरकार द्वारा विहित की जाये, तत्काल इस बात की सूचना दे देगा कि वह उस मामले में अन्वेषण न तो करेगा और न करायेगा।

और यहां ये बिलकुल स्पष्ट है कि पहले एफआईआर दर्ज की जायेगी जांच उपरांत अगर जांच अधिकारी को ये लगता है कि अन्वेषण के लिये पर्याप्त आधार नहीं हैं तो आगे की जांच नहीं की जायेगी परंतु उसके भी कारणों का उल्लेख किया जायेगा।

सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने एक आदेश में स्पष्ट कहा है कि पुलिस थानों में किसी अपराध की इत्तला की एफआईआर तुरंत दर्ज की जायेगी और पीडित व्यक्ति से कोई लिखित आवेदन लेकर औपचारिकता नहीं की जायेगी।

सही बात ये है कि सभी थाना प्रभारी इस बात से सतर्क रहते हैं कि उनके थाना क्षेत्रों में कम अपराध घटित हों और इसके लिये वे अपराध रोकने का कार्य करने की अपेक्षा अपराधों का रिकार्ड न रखने में सावधानी बरतते हैं। जब एफआईआर दर्ज नहीं होंगी तो उनके क्षेत्र में अपराध कम दिखाई देंगे और वरिष्ठ अधिकारियों की कुपित नजरें उस क्षेत्र के थाना प्रभारियों पर नहीं उठेंगी। दूसरे बिना दर्ज किये अपराधों में लेन देन की गुंजाइश अधिक बनी रहती है और वो भी दोनों पक्षों से। चूंकि एफआईआर दर्ज होने के बाद पुलिसकर्मियों पर दबाव रहता है कि कार्यवाही क्यों नहीं की गई इसलिये वे एफआईआर ही दर्ज नहीं करते और वरिष्ठ अधिकारी प्रतिवर्ष अपने कार्यकाल का ब्यौरा छाती ठोक कर देते हैं कि उनके कार्यकाल में अपराधों की संख्या में कमी आई है जबकि उसका कारण अपराधों का कम होना नहीं अपराधों का दर्ज न होना होता है।

Wednesday, May 21, 2008

पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों से कुछ सवाल

जब भी कहीं कोई बड़ी घटना होती है तो सारी पुलिस फोर्स तुरंत हरकत में आ जाती है। उस जिले की ही नहीं पूरे स्टेट की पुलिस फोर्स को हरकत में आने के लिये कह दिया जाता है। बहुत खुशी की बात है कि कभी तो हमारी पुलिस फोर्स हरकत में आती है लेकिन सवाल ये है कि घटना होने के बाद ही क्यों हमारे पुलिस विभाग में, पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों में चेतना जागती है। उनको जो शपथ दिलाई जाती है उसमें तो कहीं ये नहीं कहा जाता कि घटना होने के बाद ही पुलिसकर्मियों को हरकत में आना है। उनको तनख्वाह शायद हमेशा ही हरकत में रहने की मिलती है फिर क्यों ?घटना होने के बाद ही धरपकड़ प्रारम्भ होती है। घटना होने के बाद ही तलाशी अभियान प्रारम्भ किये जाते हैं। पहले क्यों नहीं। लगातार क्यों नहीं।

पुलिस अधिकारी ये कह कर पल्ला झाड लेते हैंं कि उनके पास पुलिस कर्मचारियों की कमी रहती है या वे 100 करोड़ जनता के पीछे 100 करोड़ पुलिस कर्मचारी तैनात नहीं कर सकते। उनका ये कहना तो सही हो सकता है कि देश के हर आदमी की सुरक्षा के लिये एक पुलिसकर्मी तैनात नहीं किया जा सकता लेकिन पुलिस कर्मचारियों की कमी है ये बात कुछ अच्छी नहीं लगती। हर चौराहे पर, गली मौहल्लों में, रेहड़ी वालों से, दुकानदारों से, ऑटो वालों से, टेम्पो वालों से, ट्रक वालों से दस-दस रूपये उगाहने वाले पुलिस कर्मचारियों को तो उन अपराधों को रोकने के लिये लगाया ही जा सकता है जिनकी होने की संभावना रहती है। दस-बीस रूपये का लालच छोड़कर अपनी अपनी बीट में यदि ये पुलिसकर्मी वहां रहने वाले लोगों से मिलजुल कर नये लोगों की जानकारी एकत्रित करते रहें तो कभी आतंकवादी अपनी जड़ें भरी हुई बस्तियों में नहीं बना पायें।

अधिकतर पुलिसकर्मियों की ड्यूटी चौराहों पर ट्रेफिक नियंत्रण करने में लगा दी जाती है। अरे, ट्रेफिक पुलिस को ही ये काम करने दो ना, अगर ट्रेफिक पुलिस कमीZ कम हैं तो और भर्ती कर लो, अगर नई भर्ती नहीं भी करनी है तो हम बिना खाकी वर्दी वालों से काम चला लेंगे, आखिर चौराहों पर भी तो ये ट्रेफिक कंट्रोल की जगह उसी 10-20 की जुगाड़ में रहते हैं। और अगर कम पुलिस कर्मियों की वजह से होने वाले एक्सीडेंट में हमारी जान चली भी जाती है तो सुकून रहेगा कि हम एक्सीडेंट में मरें हैं पड़ौसी देशों के कमीने आतंकवादियों की दहशतगर्दी का शिकार नहीं हुये।

पुलिस अधिकारी कह सकते हैं कि जब तक घटना नहीं होती हमें कैसे मालूम कि हमें कहां क्या कार्यवाही करनी है। जरा जयपुर की घटना पर नजर दौड़ाईये, बम बलास्ट के बाद बंगलादेशियों को खदेड़ा गया, घुसपैठियों को पकड़ा गया क्या ये दो काम बम बलास्ट से पहले नहीं हो सकते थे।

अचानक किसी भी प्रदेश में वारंटियों की धरपकड़ प्रारम्भ हो जाती है धड़ाधड़ वारंटी मिलने लगते हैं, थानों की हवालातें भर जाती हैं, जेलों में भीड़ बढ़ जाती है, पुलिस विभाग समाचार पत्रों में आंकड़े पेश करके खुश होता है पांच दिन में 500 वारंटी पकड़े गये। जरा पुलिस विभाग के अधिकारी ये बतायें कि ये वारंटी अभियान से पहले आजाद कैसे घूम रहे होते हैं, इनको तो वारंट निकलते ही तुरंत गिरफतार किया जाना चाहिये था। फिर अभियान चलने तक इनको खुला रहने की आजादी क्या लापरवाही नहीं होती। अधिक वारंटी पकड़ने वाले पुलिस कर्मियों को पुरस्कृत किया जाता है, कमाल है! इनको तो लापरवाही के लिये दंडित किया जाना चाहिये था फिर पुरस्कृत क्यों ?

बहुत आस लगाये हम इस विभाग को देखते हैं। देश की हालत देखकर कम से कम अब तो इन्हें अपनी जिम्मेदारियों का अहसास हो ही जाना चाहिये।

Thursday, May 15, 2008

क्या कानून सबके लिये समान है ?

मध्य प्रदेश के भिण्ड जिले के मालनपुर थाने में पदस्थ टी आई रमाकांत वाजपेयी द्वारा जहर खाकर की गई आत्महत्या ने पूरे पुलिस विभाग में खलबली मचा दी है। खलबली की वजह टी आई की आत्महत्या नहीं बल्कि उनके द्वारा लिखा गया सुसाइड नोट है जिसमें उन्होंने अपनी आत्महत्या के लिये एक महिला प्रधान आरक्षक उसके भाई, माता-पिता तथा कुछ आईपीएस अधिकारियों को दोषी ठहराया है।आईपीएस अधिकारियों का नाम प्रकरण में उछलते ही कई राजनीतिक पार्टियों के साथ वाजपेयी जी के परिवार वालों ने मामले की सीबीआई जांच की मांग शुरू कर दी है परंतु पुलिस विभाग के आला अधिकारियों ने इसकी जांच सीआईडी को सौंप कर तुरंत जांच के आदेश दिये लेकिन सुसाइड नोट में नामजद आईपीएस अधिकारियों को आरोपी नहीं बनाया गया। कहा जा रहा है कि आरोपी वाले कॉलम को खाली छोड़ दिया गया है जैसे जैसे जांच आगे बढ़ती जायेगी, जिसके खिलाफ भी सबूत मिलते जायेंगे उन्हें आरोपी बनाया जायेगा।

क्यों ?

इसलिये कि कानून कहता है कि पहले जांच की जाये यदि किसी के खिलाफ सबूत मिलें तो ही उसे आरोपी बनाया जाये ?

या सिर्फ इसलिये कि सुसाइड नोट में जिनके नाम आत्महत्या के लिये प्रेरित करने वालों में हैं वे आईपीएस अधिकारी हैं ?

यदि पहली बात सही है तो ऐसा उन हजारों लाखों प्रकरणों में क्यों नहीं किया जाता जो थानों में रोज दर्ज होते हैं। उन प्रकरणों में तो किसी की मामूली सी शिकायत पर या सिर्फ शक के आधार पर किसी को भी आरोपी पहले बनाया जाता है फिर उसे तोड़ा जाता है फिर जांच के नाम पर औपचारिकता की जाती है और प्रकरण कोर्ट में पेश कर उसे कई सालों की यातना दे दी जाती है।

और यदि दूसरी बात सही है तो फिर हमें बचपन से ये क्यों सिखाया जाता है कि कानून सबके लिये समान है।

यदि किसी और आत्महत्या के प्रकरण में कोई सुसाईड नोट मिलता और उसमें मृतक ने आत्महत्या के लिये प्रेरित करने वाले लोगों के नामों का उल्लेख किया होता और वो नाम किसी आईएएस, किसी आईपीएस या किसी और बड़ी हस्ती के नहीं होते तो भी क्या पहले जांच की औपचारिकता होती। शायद नहीं शायद क्या होती ही नहीं। उनको पहले पकड़कर सलाखों के पीछे किया जाता, फिर उनके खिलाफ प्रकरण दर्ज होता और फिर जांच की कार्यवाही आगे बढ़ती।

Saturday, May 03, 2008

साँस रोकने का वर्ल्ड रिकार्ड भारतीयों के नाम क्यों नहीं

``जमूरे!´´
``हां उस्ताद!´´
``अखबार देख के बता आज कौन सा तीर मारा विदेशियों ने, और फिर तैयारी कर ले कुछ वैसा ही करके कमाने की।
``उस्ताद! शिकांगों में `द ओपेरा विनफे्र शो´ में जादूगर डेविड ब्लेन ने एक गोले के अंदर सांस रोककर नया गिनीज वल्र्ड रिकार्ड बनाया है। उन्होंने इसमें 17 मिनट, 44 सैकेण्ड तक अपनी सांस को रोके रखा, इसके पहले यह रिकार्ड 16 मिनट 32 सैकेण्ड का था, जिसे 10 फरवरी को स्विट्जरलैण्ड के पीटर कोलेट ने बनाया था।´´
``जमूरे! तो तू उनसे भी ज्यादा यानी 20 मिनिट तक सांस रोकने का करतब जनता को दिखाना चाहता है।´´
``हां उस्ताद।´´
``जमूरे! ये करतब विदेशों में ही अच्छे लगते हैं। उनके लिये ये बहुत बड़ी बात है इसलिये नया गिनीज वल्र्ड रिकार्ड बन गया हमारे देश में तो ये आम बात है और ज्यादातर भारतियों को यह करतब आता है। विदेशियों को तो इस करतब के लिये महीनों प्रेिक्टस करने की जरूरत पड़ी होगी जबकि हमारे यहां तो बिना प्रेिक्टस के ही सांस रूकी रहती है।
``वो कैसे उस्ताद!´´
``देख, खाने के सामान के दाम आसमान छू रहे हैं जैसे ही लोग सुनते हैं कि गेहूं,चावल,तेल,शक्कर के दाम और बढ़ गये सबकी सांस रूक जाती है। और इस महंगाई की वजह से हमारे मनमोहन जी की सांस तो बहुत दिनों से अटक गई है लेकिन है न कमाल फिर भी चल रहे हैं।´´
``ये तो है उस्ताद।´´
``और सुन! आजकल भारत में अचानक नाबालिगों के साथ दुष्कर्म के मामले बढ़ गये हैं अभी अभी खबर आई है कि हर 155 वें मिनट में एक नाबालिग के साथ दुष्कर्म हो रहा है। अब बता बच्चियों के बाहर जाने पर माता-पिता की सांस रूकी रहती है कि नहीं।´´
``बिलकुल सही बोले हो उस्ताद, आजकल पिता द्वारा बेटी से बलात्कार की खबरें भी तो ज्यादा आ रही हैं इस वजह से माताओं की सांस तो कुछ ज्यादा ही रूकी हुई है।´´
``अब देख तू भी सयाना हो चला है। कितनी बढ़िया बात कही तूने। हमारे देश में तो सांस रोकने की आदत सी हो गई है। मोहल्ले में बिजली वालों के आने की खबर सुनते ही सांस रूक जाती है, यूनिट पचास इस्तेमाल करते हैं बिल डेढ़ सौ का आता है तो सांस रूक जाती है, तीन दिन छोड़ कर नलों में पानी आता है किसी वजह से तीसरे दिन भी पानी नहीं आया तो सांस रूक जाती है, प्राइवेट नौकरी वालों का महीना 1 तारीख को होता है 15 तारीख को वेतन मिलता है उस पर भी मालिक 20 तारीख की बोल देता है तो सांस रूक जाती है, अपराध कोई करता है पुलिस वाले पकड़ कर किसी को ले जाते हैं और बिना चार्ज के सात-सात दिन थाने में बिठाये रखते हैं जब तक घरवालों की सांस रूकी रहती है।
``हां उस्ताद अभी अभी मैंने सुना था कि महाराष्ट्र में उत्तर भारतियों की भी सांसें रूकी हुई हैं।´´
``बिलकुल ठीक सुना था तूने। राज ठाकरे या बाल ठाकरे कुछ बोलते हैं या बाल ठाकरे सामना में कोई लेख उत्तर भारतीयों के खिलाफ लिखते हैं तो उत्तर भारतीयों की सांस अटक जाती है और उन महाराष्टियनों की तरफ तो कोई ध्यान ही नहीं दे रहा जिनकी सांसें इस डर से रूकी रहती हैं कि कहीं उत्तर भारत में भी महाराष्ट्र जैसा ही कुछ होने लगा तो क्या होगा।
``उस्ताद अब तो चुनाव आने वाले हैं अब तो परिणाम आने तक नेताओं की भी सांस रूकी रहेगी।´´
``बिलकुल ठीक कहा जमूरे। सांस के मामले में तो इनको भी भुगतना पड़ता है। चुनकर आने के बाद पांच साल कुछ करते नहीं हैं फिर चुनाव निबट जाने तक इनकी सांस भी अटकी रहती है। और तो और भारत में तो अब सरकारों की भी सांस रूक जाती है जब गठबंधन का कोई बड़ा दल समर्थन वापसी की धमकी देने लगता है।´´
``उस्ताद आजकल तो सारे क्रिकेटरों के साथ अपने शाहरूख भैया की भी सांसें अटकी पड़ी हैं। जब तक फाइनल नहीं हो जाता उनकी भी रूकी रहेंगी।´´
``ऐसे तो बहुत क्षेत्र हैं जमूरे! अभी अभी लोगों में अंतर्जाल पर ब्लॉगिंग का भूत सवार हुआ है, दिन रात एक करके लिखते हैं जब पढ़ने वाला एक भी नहीं मिलता तो उनकी भी सांस रूक जाती है।´´
``तो फिर मैं क्या करूं उस्ताद।´´
``सांस रोकने का करिश्मा करने की मत सोच कुछ और कर। जिनकी सांसें पहले से ही अटकी हुई हों वे ऐसे करतबों में रूचि नहीं लेते।

Thursday, May 01, 2008

सीधे सच्चे राजनीतिक दलों से न पूछो, पैसा कहां से आया

केन्द्रीय सूचना आयोग ने अच्छा नहीं किया पहले से ही परेशान राजनीतिक पार्टियों की परेशानी और बढ़ा दी। अब बताईये लोग इनके फण्ड का भी हिसाब किताब मांगने लगे हैं। हमारे राजनीतिज्ञ गर्मी सर्दी बरसात की चिंता किये बिना मेहनत करते हैं भाई, थोड़ी बहुत कमाई हो भी जाती है तो वो भी बता दें, क्यों बता दें। हिसाब किताब लेने वालों को अगर इनकी कमाई से जलन होती है तो वो बना लें पार्टी, हिन्दुस्तान में पार्टी बनाने पर कोई रोक लगी है क्या।
अब देखो इत्ती बड़ी बड़ी पार्टियां और बित्ते भर के नागरिक इनके पैसे का हिसाब किताब लेंगे। गलत बात है भाई। कांग्रेस और भाजपा ने साफ साफ अपनी आपत्ति इस पर दर्ज करा दी है। क्यों दे हिसाब कोई चोर हैं क्या! हिसाब किताब देने का काम आम लोगों का है, ये पार्टियां आम हैं क्या। सूचना-वूचना का अधिकार तो इन्होंने नागरिकों की तसल्ली के लिये वैसे ही दे दिया था। इसी लिये तो हिन्दुस्तान में नागरिकों को अधिकार दिये ही नहीं जाते, जरा सी ढील दे दो तो सिर पर चढ़ बैठते हैं।
अब इस भोली-भाली जनता को ये बताओ कि पैसा कहां-कहां से आ रहा है और फिर जग हंसाई करवाओ कि सारी पार्टियों के संबंध पूंजीपतियों से कितने मधुर हैं।
और फिर सारा पैसा ये पार्टियां क्या तिजोरियों में रखती हैं, अपने ऐशो आराम में खर्च करती हैं अरे भाई जैसा आता है वैसे ही चला भी जाता है। वोटरों को भ्रमित करने के लिये कित्ते बड़े बड़े विज्ञापन अखबारों में टेलीविजन में देने पड़ते हैं, हवाई जहाज हैलिकॉप्टर से दौरे करने पड़ते हैं, बड़े बड़े संवाददाता सम्मेलन आयोजित करने पड़ते हैं, बड़ी बड़ी सभायें आयोजित करनी पड़ती हैं और जरूरत पड़ती है तो इन्हीं वोटरों को दारू मुर्गा और नकद भी। क्या पैसा नहीं लगता इस सब में।
चलो दे भी दिया हिसाब तो जो सामने निकल के आयेगा वो िझल जायेगा आप लोगों से। मान लो कोई वरूण पगली की भारतीय सेना पार्टी से फण्ड का हिसाब किताब मांगता है तो क्या सूचना मिलेगी।
पार्टी के सभी जिम्मेदार पदाधिकारी जेल में बैठेले हैं, सुना है कोई मकोका-अकोका लगा के बंद कियेला है सरकार ने, पण अपुन जो जानकारी तुम मांगेला है उसे देने की कोशिश करेंगा।
टोटल आमद की अपुन को कोई खबर नहीं पण ये मालूम है कि ज्यास्ती पैसा बिल्डरों से हफता वसूली करके कमायेला है बाप, फिर साइट में खोली बंगले खाली कराने का है, मर्डर वर्डर सुपारी लेने देने का अलग रेट है और फिर भीड़ू लोग खुद भी हिफाजत के वास्ते रकम जमा करा जाते हैं।
अभी इतने से ही काम चलाओ बाद में जब जेल से अपना बड़ा बाप आ जायेंगा तो पूरी जानकारी (अगर वो चाहेगा तो) ठप्पा लगवा कर भेज दी जायेगी। नहीं तो वो खुद किसी को तुम्हेरे घर भेज कर हिसाब किताब समझा देंगा।

इसलिये भाईयो! बड़े लोगों की बड़ी बातें, कहां से आता है कहां जाता है हमें क्या। बेमतलब में अगर ये राजनीतिक पार्टियां हिसाब किताब देने में अपना समय बरबाद करने लगीं तो देश का विकास रूक जायेगा और अगर इनको क्रोध आ गया तो हो सकता है जो सूचना का अधिकार इन्होंने हमें दे रखा है वो भी छिन जाये।

Monday, April 28, 2008

बलात्कारियों को फांसी क्यों नहीं देते

शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो जब बलात्कार खासकर लोकसेवकों द्वारा किये जा रहे बलात्कार की खबरें प्रकाश में न आती हों। कुछ तो है ऐसा जिसकी वजह से लोकसेवकों में उनमें भी पुलिस कर्मियों में बलात्कार की हिम्मत पैदा हो जाती है। और शायद ऐसा हमारे कानून के लचीले होने की वजह से होता है। दिन रात कानून से खेलने वाले पुलिसकमीZ जानते हैं कि अपराध करने के बाद उससे कैसे बचा जाता है और शायद यही चीज उनको इंसान से हैवान बना देती है। उनको पता होता है कि अपराध करने के बाद भी कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। और सच भी है ऐसे कितने प्रकरण हैं जिनमें ऐसे लोकसेवकों को सजा हुई हो। एक आम अपराधी भी जानता है कि भारतीय पुलिस की कार्य प्रणाली क्या है और अगर थोड़ा भी सोच समझकर किये गये अपराध का बचाव अदालत में किया जाये तो अपराधी सजा से बच जाता है और फिर अपराध करने के लिये सड़कों पर आजाद होता है।प्रतिदिन होने वाले नाबालिगों के साथ बलात्कार के बाद भी शायद हमारे तंत्र को यह नहीं सूझता कि अब वो समय आ गया है जब ऐसे पुलिसकर्मियों को घोर दण्ड देने से ही ऐसे अपराधों पर अंकुश लग सकता है। अभी आईपीसी की धारा 376 में लोक सेवकों द्वारा किये गये बलात्कार के अपराध में अधिकतम आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान है लेकिन नाबालिगों बिच्चयों के साथ हुये बलात्कार के मामलों में यदि मृत्युदंड दिया जाने लगे तो निश्चित ही बलात्कारियों पर कुछ अंकुश लगेगा।

Saturday, April 26, 2008

अश्लीलता को परिभाषित कौन करेगा

चीयर लीडर्स के मामले में एक बार विरोध के स्वर बुलंद होने की देर थी कि चारों तरफ हर किसी को अश्लीलता ही दिखाई देने लगी। महाराष्ट्र के बाद अब कोलकाता में भी आईपीएल के मैच में चीयर लीडर्स नहीं दिखाई देंगी, क्योंकि पश्चिम बंगाल के खेलमंत्री सुभाष चक्रवर्ती को भी चीयर लीडर्स के डांस में अश्लीलता दिखाई देने लगी है वहीं संसद में भाजपा की सुमित्रा महाजन ने भी बढ़ती अश्लीलता पर आपत्ति जताई है। अच्छी बात है हमें मिलकर बढ़ती अश्लीलता का विरोध करना ही चाहिये लेकिन बकौल महाराष्ट्र के गृहमंत्री अश्लीलता की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है फिर भी उन्होंने मैचों के दौरान होने वाले चीयर लीडर्स के डांस में अश्लीलता की जांच कराने की बात की है। कैसे होगी अश्लीलता की जांच, वो कौन सा पैमाना है जो यह बतायेगा कि कितने कपड़े कम पहनने पर अश्लीलता प्रारम्भ हो जाती है या डांसरों ने ऐसे कौन से लटके झटके इस्तेमाल किये जो अश्लील हो गये। सवाल ये है कि जांच के बिन्दू कैसे तय किये जायेंगे जब कि अश्लीलता की परिभाषा निश्चित ही नहीं है। अब सुमित्रा महाजन का कहना है कि फिल्मों और टेलीविजन पर भी अश्लीलता बढ़ती जा रही है। ये भी सही है परंतु यहां भी परेशानी वही है कि कोई दृश्य कब अश्लीलता की श्रेणी में आ जाता है इसका फैसला कैसे हो। चीयर लीडर्स डांस के दौरान जो कपड़े पहनती हैं उससे कहीं अधिक कम कपड़े हिन्दी फिल्मों की एक्ट्रेस पहनती हैं। राजनीतिज्ञों का कहना है कि मैच देखते समय बच्चे भी होते हैं और उन पर बुरा प्रभाव पढ़ता है जबकि फिल्मों के आवश्यक अंग बन चुके आइटम सॉंग में तो चीयर लीडर्स से कहीं कम कपड़े होते हैं साथ ही उनके हाव-भाव भी अश्लील होते हैं और गानों के बोल तो सभी जानते हैं आजकल कैसे इस्तेमाल किये जा रहे हैं। मैच के दौरान तो फिर भी आधा अधूरा ध्यान ही चीयर लीडर्स की तरफ जाता है परंतु फिल्में तो पूरे ध्यान के साथ देखी जाती हैं और सबसे अधिक बच्चे ही देखते हैं। फिर उन पर हो हल्ला क्यों नहीं। प्रतिबंध की बात फिल्मों के लिये क्यों नहीं की जाती। आश्चर्य जनक बात ये है कि चीयर लीडर्स के समाचार न्यूज चैनलों पर प्रमुखता से दिखाये जा रहे हैं उनके संवाददाताओं द्वारा भी यही बात कही जा रही है कि मैच के दौरान बच्चे भी होते हैं और उन बच्चों को ऐसा डांस नहीं देखना चाहिये जबकि उन समाचारों में समाचार कम और चीयर लीडर्स का डांस ही अधिक दिखाया जा रहा है।इस तरह के हो-हल्ले से तो अश्लीलता खत्म होने वाली नहीं है वो भी तब जबकि अश्लीलता सिर्फ एक ही प्रमुख राजनीतिक दल के राजनीतिज्ञों को दिखाई दे रही है जबकि दूसरे दल के अधिकांश राजनीतिज्ञ कह रहे हैं कि चीयर लीडर्स के डांस में कोई अश्लीलता नहीं है। ये विषय मिल बैठ कर सुलझाने वाले हैं और इसके लिये सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के आला दिमाग नेताओं को साफ सुथरी रणनीति बनाकर ईमानदारी से कदम उठाने होंगे और ऐसा संभव नहीं है।

Wednesday, April 16, 2008

एक टिप्पणी तो हमका उधार दई दो

जरा ठहरिये, आप तो सिर्फ शीर्षक पढ़ कर ही टिप्पणी देने के लिए तैयार हो गए। कम दे कम एक सरसरी निगाह पूरी पोस्ट पर डाल लेते तो....अरे॥अरे.. आप तो दूसरी जगह टिप्पणी देने जाने लगे. मैं तो सिर्फ इतना अर्ज़ करना चाह रहा था कि चूंकि उधार का मामला है, आख़िर मैंने लौटाना भी तो है. इसलिए मुझे किस प्रकार की टिप्पणी चाहिए बस ये पढ़ लेते तो मेहरबानी होती.

उदाहरण के लिए : चापलूस टिप्पणी नहीं चाहिए।

जैसे-भई वाह! क्या खूब लिखा है।

मज़ा आ गया, आपने तो कमाल ही कर दिया।

अरे यार, क्या गज़ब का बिषय सोचा है तुमने।

हालांकि मैं जानता हूँ कि अभी मुझे इस वर्ग कि टिप्पणियों को हासिल करने के लिए लंबा इंतज़ार करना पड़ेगा क्योंकि इस तरह कि टिप्पणिया अधिकतर वरिष्ठ ब्लागरों की पोस्टों को ही की जाती हैं। जबकि साफ साफ दिख रहा होता है कि टिप्पणी देने वाले ने पूरी पोस्ट पर सिर्फ सरसरी निगाह डाली हुई है उसे पढ़ा नहीं है। पढने का समय किसके पास है, और फिर अखाडे में जब सभी पहलवान हों तो सभी अपने को सम्पूर्ण समझते हैं तो दूसरे की जोर आज़माइश को कौन देखे.

नर्वस करने वाली टिप्पणियां ना करें।जैसे -

ठीक है, लिखते रहो। या कुछ और सोचा होता.

ऐसी टिप्पणियां अधिकतर स्थापित ब्लागरों द्वारा मेरे जैसे नये नवेले ब्लागरों की पोस्टों पर की जाती हैं पढ़ कर कुछ और लिखने की हिम्मत ही नहीं होती।

डराने वाली टिप्पणी ना करें -

अगर लिखना नहीं आता है तो क्यों घुस बैठे हो हम लोगों के बीच। अब तो जिधर से देखो मुंह उठाये अंतर्जाल पर चले आ रहे हैं. पहले सीखो, ब्लॉग देखो दूसरो को पढो फिर ब्लागर बनने की सोचना.

हालांकि ये डराने वाली टिप्पणी है परन्तु इससे मुझे इसलिए डर नहीं लगेगा क्योंकि ऐसी टिप्पणी सिर्फ स्थापित ब्लागर ही दे सकते हैं और ऐसी टिप्पणी में ५-७ पंक्तियाँ लिखना पड़ेंगी और अभी तक की गई टिप्पणियों की हालत देखकर मुझे नहीं लगता कि मुझ जैसे नौसिखिया ब्लागर पर कोई इतना समय बरबाद करेगा।

उनसे भी टिप्पणी नहीं चाहिए जिन्होंने बिना पढे सिर्फ ५-७ ब्लागरों की पोस्टों पर प्रतिदिन टिप्पणियां देने का नियम बना रखा है।

अब छोडिये भी, आप मेरे द्वारे आए मेरी बकवास पर सरसरी निगाह डाली इसके लिए धन्यवाद. (अगर पढ़ा भी है तो दिल से धन्यवाद). आप कैसी भी टिप्पणी देने के लिए स्वतंत्र हैं, पर बदले में मैं आपकी पूरी पोस्ट ध्यान से पढ़कर बेवाक टिप्पणी ही दे सकता हूँ जिसमें चापलूसी नहीं होगी, बेगारी नहीं होगी, मज़बूरी नहीं होगी.

Sunday, April 13, 2008

हम करें तो चोरी और वो करें तो .....

ये आंक्लित खपत क्या है? बिजली घर में एक सज्जन ने मुझसे पूछा तो मैंने उसे बताया कि जो लोग चोरी कर के बिजली का इस्तेमाल करते हैं उन को बिजली वालों द्वारा दी जा रही सज़ा को आंक्लित खपत कहते हैं.
"लेकिन मैं तो चोरी करता ही नहीं हूँ." वो सज्जन बोले,"फिर भी मेरी ६० यूनिट के साथ १०० यूनिट आंक्लित खपत लग कर बिल में आई हैं."
इसका जबाव मेरे पास नहीं था. शायद किसी के पास भी नहीं है. जब आंक्लित खपत के बारे में उपभोक्ता संगठन आवाज़ उठाते हैं तो विधुत मंडल के आका मासूमियत भरा जबाव देते हैं कि आंक्लित खपत के लिए सभी जोन को चेतावनी दे दी गई है फिर भी यदि किसी के बिल में आंक्लित खपत लग कर आती है तो उपभोक्ता उसकी शिकायत करें.
मैंने उस दिन बिजली घर में हो रही भीड़ में पता किया तो अधिकतर आंक्लित खपत के बिल ही थे. हर बिल में बिजली घर कि तरफ से एक वाक्य छपा आता है "बिजली कि बचत कीजिये." और जोन के अधिकारियों का कहना है कि बिल में कम से कम १०० यूनिट आना आवश्यक है. अगर किसी के बिल में इससे कम यूनिट आती है तो हम ये मान लेते हैं कि वो चोरी कर रहा है.
कैसा अजीव सा नियम है ये. एक व्यक्ति ईमानदारी से कम से कम बिजली का इस्तेमाल करता है तो उसे प्रोत्साहित किया जाता है कि वो बिजली अधिक जलाये. नहीं तो बिना बिजली का इस्तेमाल किए वसूली कि जाती है. यदि किसी अधिक जागरूक ने आंक्लित खपत कि शिकायत करने कि कोशिश कि तो उसे डरा दिया जाता है कि आवेदन दे जाओ हम चेक करने आयेंगे तुम्हारे यहाँ लोड कितना है. आम आदमी चुप्पी लगा जाता है क्योंकि उसकी समझ में बिजली वालों का घर में आना ही मुसीबत का आना है.
मध्य प्रदेश में दिए जा रहे बिलों में बिल के पीछे आंक्लित खपत की परिभाषा दी गई है.
आंक्लित खपत - मीटर बंद अथवा ख़राब होने की दशा में पिछले माहों की खपत के आधार अथवा अन्य उचित आधार पर निश्चत की जाती है.
मैंने एक ऐसा बिल देखा जिसने नया कनेक्शन लिया था और उसका पहला ही बिल था उसमें भी १०० यूनिट आंक्लित खपत के लगे थे जबकि उसकी कुल मासिक खपत मात्र ५० यूनिट थी. १५० यूनिट का बिल वो चुपचाप भर कर निकल गया. शिकायत करने के बारे में उसका कहना था. "सब चोर हैं किससे शिकायत करें. कमाल की बात ये थी की दी गई परिभाषा में उसके बिल में लगाई आंक्लित खपत कहीं फिट नहीं हो रही थी.
हमें उन बिजली चोरों के हिस्से की सज़ा भुगतना पड़ रही है जो चोरी भी करते हैं और बचने के रास्ते भी जानते हैं लेकिन हमारी सरकारों के पास इसका कोई हल नहीं है. कयोंकि उसका तो एक ही मूलमंत्र है वसूली करो कैसे भी कहीं से भी.

Tuesday, April 08, 2008

अंग प्रदर्शन फिल्मों में पहले अब और आगे


पुरानी फिल्मों में तो अंग प्रदर्शन होता ही नहीं था। धीरे धीरे समय बदला और फ़िल्म अभिनेत्रियों ने सफलता के लिए अंग प्रदर्शन का सहारा लेना प्रारम्भ कर दिया। जिन लोगों ने वी .शांताराम के समय की फिल्में देखीं हैं वे तो आज की फिल्मों में हो रहे अंग प्रदर्शन की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। लेकिन क्या करें ज़माना बदल गया है और ज़माने के साथ सभी परिभाषाएं भी बदलती जा रहीं हैं। जब हेलन ने फिल्मों में आईटम सोंग करना प्रारम्भ किया तो लोगों की मांग बढ़ गई और फिर आहिस्ता आहिस्ता वास्तविक अंग प्रदर्शन ने फिल्मों में पैर पसारना प्रारम्भ कर दिया।
अब तो हमें भी इस अंग प्रदर्शन की आदत सी हो गई है परेशानी उस समय प्रारम्भ हो जाती है जब हम उसका विरोध नहीं करते। पहले हमने धीरे धीरे उतरते हीरोइनों के वस्त्रों की आदत डाली फ़िर लगभग नग्न द्रश्य देखने की। हम फ़िर भी चुप रहे शायद हमारा भी स्वार्थ इससे जुडा हुआ था। लेकिन अब बेचैनी सी होती है जब इमरान हाशमी को अपने छोटे छोटे बच्चों के सामने हीरोइनों के वस्त्र उतरते देखते हैं।
सवाल ये है की अब इसके बाद क्या? कभी कभी ये सवाल कई लोगों को परेशान कर जाता है। लेकिन सवाल है और इसका जबाव भी हमें मालूम है। जब इतना कुछ हो सकता है तो क्या पता कल हमें बच्चों के सामने वो सब देखना पड़ जाए जिसकी आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

Monday, March 31, 2008

ये हमारी पुलिस है

एक आदमी अचानक गुम हो जाता है परिवार वाले उसकी सूचना तुरंत थाने को देते है। थाने में रिपोर्ट दर्ज होती है कार्यवाही होती है लेकिन उस आदमी का पता नहीं चलता। ये कोई नई बात नहीं है कम से कम हमारे भारत की पुलिस के लिए तो बिल्कुल भी नहीं है। लेकिन अगर गुम होने के दूसरेदिन ही उस आदमी की दुर्घटना में मौत हो जाय पुलिस को पता भी लग जाय की मरने वाला एक दिन पहले गुम हुआ आदमी है फ़िर भी उसकी सूचना सवा साल बाद उसके परिवार को दी जाय तो हमे समझ लेना चाहिए की अब हमारी पुलिस ने वास्तव में तरक्की कर ली है। एक रास्ट्रीय समाचार पत्र में जब ये पढ़ा की ग्वालियर की पुलिस ने ऐसा ही कारनामा अभी हाल ही में अंजाम दिया है और वह भी मात्र दो थानों की सीमाओं के विवाद के चलते तो बहुत दुःख हुआ। क्या वास्तव में इंसानियत नाम की चीज़ बिल्कुल खत्म हो गई है। क्या इन पुलिस वालों के दिल में कोई ज़ज्बात नहीं होते। ये कमाल तो तब हुआ जब कि मृतक का भाई बीजेपी का नेता है। ये हाल जब पढे लिखे प्रतिष्ठित व्यक्ति का हो सकता है तो बेचारे गरीब और अनपढ़ लोगों का क्या होगा। बाद मैं पुलिस के एक आला अधिकारी से जांच कराई गई तो उसमें भी पुलिस कर्मियों की लापरवाही पाई गई। क्या होगा निलंबन, आदत हो गई है पुलिस के कर्मचारियों और अधिकारियों को निलंबन की। अब तो कोई कठोर सज़ा के बारे में सोचना होगा।

Friday, March 28, 2008

आसान नहीं है हिन्दी मैं लिखना

पिछले एक माह मैं प्रतिदिन पांच पांच घंटे की कड़ी म्हणत के बाद भी अभी कह नहीं सकता की कब तक ब्लॉग लिखने मैं कामयाब हो पाऊँगा हालांकि मेरी ताईपींग की गति बहुत अच्छी है उसके बाद भी और कई वरिस्थ ब्लागरों को पड़ने के बाद भी मैं अपने को इस लायक नही बना सका की तुरंत टाइप कर सकूं सोचा था पहली बार कोई धमाका करूंगा कुछ ऐसा लिख्हुंगा की पाठक बार बार पड़ने को बेताव हो जायेंगे लेकिन ऐसा नहीं सका कोशश जारी है कहते हैं ना कि हिम्मत ऐ मर्दा मदद ऐ खुदा