Wednesday, May 21, 2008

पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों से कुछ सवाल

जब भी कहीं कोई बड़ी घटना होती है तो सारी पुलिस फोर्स तुरंत हरकत में आ जाती है। उस जिले की ही नहीं पूरे स्टेट की पुलिस फोर्स को हरकत में आने के लिये कह दिया जाता है। बहुत खुशी की बात है कि कभी तो हमारी पुलिस फोर्स हरकत में आती है लेकिन सवाल ये है कि घटना होने के बाद ही क्यों हमारे पुलिस विभाग में, पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों में चेतना जागती है। उनको जो शपथ दिलाई जाती है उसमें तो कहीं ये नहीं कहा जाता कि घटना होने के बाद ही पुलिसकर्मियों को हरकत में आना है। उनको तनख्वाह शायद हमेशा ही हरकत में रहने की मिलती है फिर क्यों ?घटना होने के बाद ही धरपकड़ प्रारम्भ होती है। घटना होने के बाद ही तलाशी अभियान प्रारम्भ किये जाते हैं। पहले क्यों नहीं। लगातार क्यों नहीं।

पुलिस अधिकारी ये कह कर पल्ला झाड लेते हैंं कि उनके पास पुलिस कर्मचारियों की कमी रहती है या वे 100 करोड़ जनता के पीछे 100 करोड़ पुलिस कर्मचारी तैनात नहीं कर सकते। उनका ये कहना तो सही हो सकता है कि देश के हर आदमी की सुरक्षा के लिये एक पुलिसकर्मी तैनात नहीं किया जा सकता लेकिन पुलिस कर्मचारियों की कमी है ये बात कुछ अच्छी नहीं लगती। हर चौराहे पर, गली मौहल्लों में, रेहड़ी वालों से, दुकानदारों से, ऑटो वालों से, टेम्पो वालों से, ट्रक वालों से दस-दस रूपये उगाहने वाले पुलिस कर्मचारियों को तो उन अपराधों को रोकने के लिये लगाया ही जा सकता है जिनकी होने की संभावना रहती है। दस-बीस रूपये का लालच छोड़कर अपनी अपनी बीट में यदि ये पुलिसकर्मी वहां रहने वाले लोगों से मिलजुल कर नये लोगों की जानकारी एकत्रित करते रहें तो कभी आतंकवादी अपनी जड़ें भरी हुई बस्तियों में नहीं बना पायें।

अधिकतर पुलिसकर्मियों की ड्यूटी चौराहों पर ट्रेफिक नियंत्रण करने में लगा दी जाती है। अरे, ट्रेफिक पुलिस को ही ये काम करने दो ना, अगर ट्रेफिक पुलिस कमीZ कम हैं तो और भर्ती कर लो, अगर नई भर्ती नहीं भी करनी है तो हम बिना खाकी वर्दी वालों से काम चला लेंगे, आखिर चौराहों पर भी तो ये ट्रेफिक कंट्रोल की जगह उसी 10-20 की जुगाड़ में रहते हैं। और अगर कम पुलिस कर्मियों की वजह से होने वाले एक्सीडेंट में हमारी जान चली भी जाती है तो सुकून रहेगा कि हम एक्सीडेंट में मरें हैं पड़ौसी देशों के कमीने आतंकवादियों की दहशतगर्दी का शिकार नहीं हुये।

पुलिस अधिकारी कह सकते हैं कि जब तक घटना नहीं होती हमें कैसे मालूम कि हमें कहां क्या कार्यवाही करनी है। जरा जयपुर की घटना पर नजर दौड़ाईये, बम बलास्ट के बाद बंगलादेशियों को खदेड़ा गया, घुसपैठियों को पकड़ा गया क्या ये दो काम बम बलास्ट से पहले नहीं हो सकते थे।

अचानक किसी भी प्रदेश में वारंटियों की धरपकड़ प्रारम्भ हो जाती है धड़ाधड़ वारंटी मिलने लगते हैं, थानों की हवालातें भर जाती हैं, जेलों में भीड़ बढ़ जाती है, पुलिस विभाग समाचार पत्रों में आंकड़े पेश करके खुश होता है पांच दिन में 500 वारंटी पकड़े गये। जरा पुलिस विभाग के अधिकारी ये बतायें कि ये वारंटी अभियान से पहले आजाद कैसे घूम रहे होते हैं, इनको तो वारंट निकलते ही तुरंत गिरफतार किया जाना चाहिये था। फिर अभियान चलने तक इनको खुला रहने की आजादी क्या लापरवाही नहीं होती। अधिक वारंटी पकड़ने वाले पुलिस कर्मियों को पुरस्कृत किया जाता है, कमाल है! इनको तो लापरवाही के लिये दंडित किया जाना चाहिये था फिर पुरस्कृत क्यों ?

बहुत आस लगाये हम इस विभाग को देखते हैं। देश की हालत देखकर कम से कम अब तो इन्हें अपनी जिम्मेदारियों का अहसास हो ही जाना चाहिये।

Thursday, May 15, 2008

क्या कानून सबके लिये समान है ?

मध्य प्रदेश के भिण्ड जिले के मालनपुर थाने में पदस्थ टी आई रमाकांत वाजपेयी द्वारा जहर खाकर की गई आत्महत्या ने पूरे पुलिस विभाग में खलबली मचा दी है। खलबली की वजह टी आई की आत्महत्या नहीं बल्कि उनके द्वारा लिखा गया सुसाइड नोट है जिसमें उन्होंने अपनी आत्महत्या के लिये एक महिला प्रधान आरक्षक उसके भाई, माता-पिता तथा कुछ आईपीएस अधिकारियों को दोषी ठहराया है।आईपीएस अधिकारियों का नाम प्रकरण में उछलते ही कई राजनीतिक पार्टियों के साथ वाजपेयी जी के परिवार वालों ने मामले की सीबीआई जांच की मांग शुरू कर दी है परंतु पुलिस विभाग के आला अधिकारियों ने इसकी जांच सीआईडी को सौंप कर तुरंत जांच के आदेश दिये लेकिन सुसाइड नोट में नामजद आईपीएस अधिकारियों को आरोपी नहीं बनाया गया। कहा जा रहा है कि आरोपी वाले कॉलम को खाली छोड़ दिया गया है जैसे जैसे जांच आगे बढ़ती जायेगी, जिसके खिलाफ भी सबूत मिलते जायेंगे उन्हें आरोपी बनाया जायेगा।

क्यों ?

इसलिये कि कानून कहता है कि पहले जांच की जाये यदि किसी के खिलाफ सबूत मिलें तो ही उसे आरोपी बनाया जाये ?

या सिर्फ इसलिये कि सुसाइड नोट में जिनके नाम आत्महत्या के लिये प्रेरित करने वालों में हैं वे आईपीएस अधिकारी हैं ?

यदि पहली बात सही है तो ऐसा उन हजारों लाखों प्रकरणों में क्यों नहीं किया जाता जो थानों में रोज दर्ज होते हैं। उन प्रकरणों में तो किसी की मामूली सी शिकायत पर या सिर्फ शक के आधार पर किसी को भी आरोपी पहले बनाया जाता है फिर उसे तोड़ा जाता है फिर जांच के नाम पर औपचारिकता की जाती है और प्रकरण कोर्ट में पेश कर उसे कई सालों की यातना दे दी जाती है।

और यदि दूसरी बात सही है तो फिर हमें बचपन से ये क्यों सिखाया जाता है कि कानून सबके लिये समान है।

यदि किसी और आत्महत्या के प्रकरण में कोई सुसाईड नोट मिलता और उसमें मृतक ने आत्महत्या के लिये प्रेरित करने वाले लोगों के नामों का उल्लेख किया होता और वो नाम किसी आईएएस, किसी आईपीएस या किसी और बड़ी हस्ती के नहीं होते तो भी क्या पहले जांच की औपचारिकता होती। शायद नहीं शायद क्या होती ही नहीं। उनको पहले पकड़कर सलाखों के पीछे किया जाता, फिर उनके खिलाफ प्रकरण दर्ज होता और फिर जांच की कार्यवाही आगे बढ़ती।

Saturday, May 03, 2008

साँस रोकने का वर्ल्ड रिकार्ड भारतीयों के नाम क्यों नहीं

``जमूरे!´´
``हां उस्ताद!´´
``अखबार देख के बता आज कौन सा तीर मारा विदेशियों ने, और फिर तैयारी कर ले कुछ वैसा ही करके कमाने की।
``उस्ताद! शिकांगों में `द ओपेरा विनफे्र शो´ में जादूगर डेविड ब्लेन ने एक गोले के अंदर सांस रोककर नया गिनीज वल्र्ड रिकार्ड बनाया है। उन्होंने इसमें 17 मिनट, 44 सैकेण्ड तक अपनी सांस को रोके रखा, इसके पहले यह रिकार्ड 16 मिनट 32 सैकेण्ड का था, जिसे 10 फरवरी को स्विट्जरलैण्ड के पीटर कोलेट ने बनाया था।´´
``जमूरे! तो तू उनसे भी ज्यादा यानी 20 मिनिट तक सांस रोकने का करतब जनता को दिखाना चाहता है।´´
``हां उस्ताद।´´
``जमूरे! ये करतब विदेशों में ही अच्छे लगते हैं। उनके लिये ये बहुत बड़ी बात है इसलिये नया गिनीज वल्र्ड रिकार्ड बन गया हमारे देश में तो ये आम बात है और ज्यादातर भारतियों को यह करतब आता है। विदेशियों को तो इस करतब के लिये महीनों प्रेिक्टस करने की जरूरत पड़ी होगी जबकि हमारे यहां तो बिना प्रेिक्टस के ही सांस रूकी रहती है।
``वो कैसे उस्ताद!´´
``देख, खाने के सामान के दाम आसमान छू रहे हैं जैसे ही लोग सुनते हैं कि गेहूं,चावल,तेल,शक्कर के दाम और बढ़ गये सबकी सांस रूक जाती है। और इस महंगाई की वजह से हमारे मनमोहन जी की सांस तो बहुत दिनों से अटक गई है लेकिन है न कमाल फिर भी चल रहे हैं।´´
``ये तो है उस्ताद।´´
``और सुन! आजकल भारत में अचानक नाबालिगों के साथ दुष्कर्म के मामले बढ़ गये हैं अभी अभी खबर आई है कि हर 155 वें मिनट में एक नाबालिग के साथ दुष्कर्म हो रहा है। अब बता बच्चियों के बाहर जाने पर माता-पिता की सांस रूकी रहती है कि नहीं।´´
``बिलकुल सही बोले हो उस्ताद, आजकल पिता द्वारा बेटी से बलात्कार की खबरें भी तो ज्यादा आ रही हैं इस वजह से माताओं की सांस तो कुछ ज्यादा ही रूकी हुई है।´´
``अब देख तू भी सयाना हो चला है। कितनी बढ़िया बात कही तूने। हमारे देश में तो सांस रोकने की आदत सी हो गई है। मोहल्ले में बिजली वालों के आने की खबर सुनते ही सांस रूक जाती है, यूनिट पचास इस्तेमाल करते हैं बिल डेढ़ सौ का आता है तो सांस रूक जाती है, तीन दिन छोड़ कर नलों में पानी आता है किसी वजह से तीसरे दिन भी पानी नहीं आया तो सांस रूक जाती है, प्राइवेट नौकरी वालों का महीना 1 तारीख को होता है 15 तारीख को वेतन मिलता है उस पर भी मालिक 20 तारीख की बोल देता है तो सांस रूक जाती है, अपराध कोई करता है पुलिस वाले पकड़ कर किसी को ले जाते हैं और बिना चार्ज के सात-सात दिन थाने में बिठाये रखते हैं जब तक घरवालों की सांस रूकी रहती है।
``हां उस्ताद अभी अभी मैंने सुना था कि महाराष्ट्र में उत्तर भारतियों की भी सांसें रूकी हुई हैं।´´
``बिलकुल ठीक सुना था तूने। राज ठाकरे या बाल ठाकरे कुछ बोलते हैं या बाल ठाकरे सामना में कोई लेख उत्तर भारतीयों के खिलाफ लिखते हैं तो उत्तर भारतीयों की सांस अटक जाती है और उन महाराष्टियनों की तरफ तो कोई ध्यान ही नहीं दे रहा जिनकी सांसें इस डर से रूकी रहती हैं कि कहीं उत्तर भारत में भी महाराष्ट्र जैसा ही कुछ होने लगा तो क्या होगा।
``उस्ताद अब तो चुनाव आने वाले हैं अब तो परिणाम आने तक नेताओं की भी सांस रूकी रहेगी।´´
``बिलकुल ठीक कहा जमूरे। सांस के मामले में तो इनको भी भुगतना पड़ता है। चुनकर आने के बाद पांच साल कुछ करते नहीं हैं फिर चुनाव निबट जाने तक इनकी सांस भी अटकी रहती है। और तो और भारत में तो अब सरकारों की भी सांस रूक जाती है जब गठबंधन का कोई बड़ा दल समर्थन वापसी की धमकी देने लगता है।´´
``उस्ताद आजकल तो सारे क्रिकेटरों के साथ अपने शाहरूख भैया की भी सांसें अटकी पड़ी हैं। जब तक फाइनल नहीं हो जाता उनकी भी रूकी रहेंगी।´´
``ऐसे तो बहुत क्षेत्र हैं जमूरे! अभी अभी लोगों में अंतर्जाल पर ब्लॉगिंग का भूत सवार हुआ है, दिन रात एक करके लिखते हैं जब पढ़ने वाला एक भी नहीं मिलता तो उनकी भी सांस रूक जाती है।´´
``तो फिर मैं क्या करूं उस्ताद।´´
``सांस रोकने का करिश्मा करने की मत सोच कुछ और कर। जिनकी सांसें पहले से ही अटकी हुई हों वे ऐसे करतबों में रूचि नहीं लेते।

Thursday, May 01, 2008

सीधे सच्चे राजनीतिक दलों से न पूछो, पैसा कहां से आया

केन्द्रीय सूचना आयोग ने अच्छा नहीं किया पहले से ही परेशान राजनीतिक पार्टियों की परेशानी और बढ़ा दी। अब बताईये लोग इनके फण्ड का भी हिसाब किताब मांगने लगे हैं। हमारे राजनीतिज्ञ गर्मी सर्दी बरसात की चिंता किये बिना मेहनत करते हैं भाई, थोड़ी बहुत कमाई हो भी जाती है तो वो भी बता दें, क्यों बता दें। हिसाब किताब लेने वालों को अगर इनकी कमाई से जलन होती है तो वो बना लें पार्टी, हिन्दुस्तान में पार्टी बनाने पर कोई रोक लगी है क्या।
अब देखो इत्ती बड़ी बड़ी पार्टियां और बित्ते भर के नागरिक इनके पैसे का हिसाब किताब लेंगे। गलत बात है भाई। कांग्रेस और भाजपा ने साफ साफ अपनी आपत्ति इस पर दर्ज करा दी है। क्यों दे हिसाब कोई चोर हैं क्या! हिसाब किताब देने का काम आम लोगों का है, ये पार्टियां आम हैं क्या। सूचना-वूचना का अधिकार तो इन्होंने नागरिकों की तसल्ली के लिये वैसे ही दे दिया था। इसी लिये तो हिन्दुस्तान में नागरिकों को अधिकार दिये ही नहीं जाते, जरा सी ढील दे दो तो सिर पर चढ़ बैठते हैं।
अब इस भोली-भाली जनता को ये बताओ कि पैसा कहां-कहां से आ रहा है और फिर जग हंसाई करवाओ कि सारी पार्टियों के संबंध पूंजीपतियों से कितने मधुर हैं।
और फिर सारा पैसा ये पार्टियां क्या तिजोरियों में रखती हैं, अपने ऐशो आराम में खर्च करती हैं अरे भाई जैसा आता है वैसे ही चला भी जाता है। वोटरों को भ्रमित करने के लिये कित्ते बड़े बड़े विज्ञापन अखबारों में टेलीविजन में देने पड़ते हैं, हवाई जहाज हैलिकॉप्टर से दौरे करने पड़ते हैं, बड़े बड़े संवाददाता सम्मेलन आयोजित करने पड़ते हैं, बड़ी बड़ी सभायें आयोजित करनी पड़ती हैं और जरूरत पड़ती है तो इन्हीं वोटरों को दारू मुर्गा और नकद भी। क्या पैसा नहीं लगता इस सब में।
चलो दे भी दिया हिसाब तो जो सामने निकल के आयेगा वो िझल जायेगा आप लोगों से। मान लो कोई वरूण पगली की भारतीय सेना पार्टी से फण्ड का हिसाब किताब मांगता है तो क्या सूचना मिलेगी।
पार्टी के सभी जिम्मेदार पदाधिकारी जेल में बैठेले हैं, सुना है कोई मकोका-अकोका लगा के बंद कियेला है सरकार ने, पण अपुन जो जानकारी तुम मांगेला है उसे देने की कोशिश करेंगा।
टोटल आमद की अपुन को कोई खबर नहीं पण ये मालूम है कि ज्यास्ती पैसा बिल्डरों से हफता वसूली करके कमायेला है बाप, फिर साइट में खोली बंगले खाली कराने का है, मर्डर वर्डर सुपारी लेने देने का अलग रेट है और फिर भीड़ू लोग खुद भी हिफाजत के वास्ते रकम जमा करा जाते हैं।
अभी इतने से ही काम चलाओ बाद में जब जेल से अपना बड़ा बाप आ जायेंगा तो पूरी जानकारी (अगर वो चाहेगा तो) ठप्पा लगवा कर भेज दी जायेगी। नहीं तो वो खुद किसी को तुम्हेरे घर भेज कर हिसाब किताब समझा देंगा।

इसलिये भाईयो! बड़े लोगों की बड़ी बातें, कहां से आता है कहां जाता है हमें क्या। बेमतलब में अगर ये राजनीतिक पार्टियां हिसाब किताब देने में अपना समय बरबाद करने लगीं तो देश का विकास रूक जायेगा और अगर इनको क्रोध आ गया तो हो सकता है जो सूचना का अधिकार इन्होंने हमें दे रखा है वो भी छिन जाये।