Monday, April 28, 2008

बलात्कारियों को फांसी क्यों नहीं देते

शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो जब बलात्कार खासकर लोकसेवकों द्वारा किये जा रहे बलात्कार की खबरें प्रकाश में न आती हों। कुछ तो है ऐसा जिसकी वजह से लोकसेवकों में उनमें भी पुलिस कर्मियों में बलात्कार की हिम्मत पैदा हो जाती है। और शायद ऐसा हमारे कानून के लचीले होने की वजह से होता है। दिन रात कानून से खेलने वाले पुलिसकमीZ जानते हैं कि अपराध करने के बाद उससे कैसे बचा जाता है और शायद यही चीज उनको इंसान से हैवान बना देती है। उनको पता होता है कि अपराध करने के बाद भी कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। और सच भी है ऐसे कितने प्रकरण हैं जिनमें ऐसे लोकसेवकों को सजा हुई हो। एक आम अपराधी भी जानता है कि भारतीय पुलिस की कार्य प्रणाली क्या है और अगर थोड़ा भी सोच समझकर किये गये अपराध का बचाव अदालत में किया जाये तो अपराधी सजा से बच जाता है और फिर अपराध करने के लिये सड़कों पर आजाद होता है।प्रतिदिन होने वाले नाबालिगों के साथ बलात्कार के बाद भी शायद हमारे तंत्र को यह नहीं सूझता कि अब वो समय आ गया है जब ऐसे पुलिसकर्मियों को घोर दण्ड देने से ही ऐसे अपराधों पर अंकुश लग सकता है। अभी आईपीसी की धारा 376 में लोक सेवकों द्वारा किये गये बलात्कार के अपराध में अधिकतम आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान है लेकिन नाबालिगों बिच्चयों के साथ हुये बलात्कार के मामलों में यदि मृत्युदंड दिया जाने लगे तो निश्चित ही बलात्कारियों पर कुछ अंकुश लगेगा।

Saturday, April 26, 2008

अश्लीलता को परिभाषित कौन करेगा

चीयर लीडर्स के मामले में एक बार विरोध के स्वर बुलंद होने की देर थी कि चारों तरफ हर किसी को अश्लीलता ही दिखाई देने लगी। महाराष्ट्र के बाद अब कोलकाता में भी आईपीएल के मैच में चीयर लीडर्स नहीं दिखाई देंगी, क्योंकि पश्चिम बंगाल के खेलमंत्री सुभाष चक्रवर्ती को भी चीयर लीडर्स के डांस में अश्लीलता दिखाई देने लगी है वहीं संसद में भाजपा की सुमित्रा महाजन ने भी बढ़ती अश्लीलता पर आपत्ति जताई है। अच्छी बात है हमें मिलकर बढ़ती अश्लीलता का विरोध करना ही चाहिये लेकिन बकौल महाराष्ट्र के गृहमंत्री अश्लीलता की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है फिर भी उन्होंने मैचों के दौरान होने वाले चीयर लीडर्स के डांस में अश्लीलता की जांच कराने की बात की है। कैसे होगी अश्लीलता की जांच, वो कौन सा पैमाना है जो यह बतायेगा कि कितने कपड़े कम पहनने पर अश्लीलता प्रारम्भ हो जाती है या डांसरों ने ऐसे कौन से लटके झटके इस्तेमाल किये जो अश्लील हो गये। सवाल ये है कि जांच के बिन्दू कैसे तय किये जायेंगे जब कि अश्लीलता की परिभाषा निश्चित ही नहीं है। अब सुमित्रा महाजन का कहना है कि फिल्मों और टेलीविजन पर भी अश्लीलता बढ़ती जा रही है। ये भी सही है परंतु यहां भी परेशानी वही है कि कोई दृश्य कब अश्लीलता की श्रेणी में आ जाता है इसका फैसला कैसे हो। चीयर लीडर्स डांस के दौरान जो कपड़े पहनती हैं उससे कहीं अधिक कम कपड़े हिन्दी फिल्मों की एक्ट्रेस पहनती हैं। राजनीतिज्ञों का कहना है कि मैच देखते समय बच्चे भी होते हैं और उन पर बुरा प्रभाव पढ़ता है जबकि फिल्मों के आवश्यक अंग बन चुके आइटम सॉंग में तो चीयर लीडर्स से कहीं कम कपड़े होते हैं साथ ही उनके हाव-भाव भी अश्लील होते हैं और गानों के बोल तो सभी जानते हैं आजकल कैसे इस्तेमाल किये जा रहे हैं। मैच के दौरान तो फिर भी आधा अधूरा ध्यान ही चीयर लीडर्स की तरफ जाता है परंतु फिल्में तो पूरे ध्यान के साथ देखी जाती हैं और सबसे अधिक बच्चे ही देखते हैं। फिर उन पर हो हल्ला क्यों नहीं। प्रतिबंध की बात फिल्मों के लिये क्यों नहीं की जाती। आश्चर्य जनक बात ये है कि चीयर लीडर्स के समाचार न्यूज चैनलों पर प्रमुखता से दिखाये जा रहे हैं उनके संवाददाताओं द्वारा भी यही बात कही जा रही है कि मैच के दौरान बच्चे भी होते हैं और उन बच्चों को ऐसा डांस नहीं देखना चाहिये जबकि उन समाचारों में समाचार कम और चीयर लीडर्स का डांस ही अधिक दिखाया जा रहा है।इस तरह के हो-हल्ले से तो अश्लीलता खत्म होने वाली नहीं है वो भी तब जबकि अश्लीलता सिर्फ एक ही प्रमुख राजनीतिक दल के राजनीतिज्ञों को दिखाई दे रही है जबकि दूसरे दल के अधिकांश राजनीतिज्ञ कह रहे हैं कि चीयर लीडर्स के डांस में कोई अश्लीलता नहीं है। ये विषय मिल बैठ कर सुलझाने वाले हैं और इसके लिये सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के आला दिमाग नेताओं को साफ सुथरी रणनीति बनाकर ईमानदारी से कदम उठाने होंगे और ऐसा संभव नहीं है।

Wednesday, April 16, 2008

एक टिप्पणी तो हमका उधार दई दो

जरा ठहरिये, आप तो सिर्फ शीर्षक पढ़ कर ही टिप्पणी देने के लिए तैयार हो गए। कम दे कम एक सरसरी निगाह पूरी पोस्ट पर डाल लेते तो....अरे॥अरे.. आप तो दूसरी जगह टिप्पणी देने जाने लगे. मैं तो सिर्फ इतना अर्ज़ करना चाह रहा था कि चूंकि उधार का मामला है, आख़िर मैंने लौटाना भी तो है. इसलिए मुझे किस प्रकार की टिप्पणी चाहिए बस ये पढ़ लेते तो मेहरबानी होती.

उदाहरण के लिए : चापलूस टिप्पणी नहीं चाहिए।

जैसे-भई वाह! क्या खूब लिखा है।

मज़ा आ गया, आपने तो कमाल ही कर दिया।

अरे यार, क्या गज़ब का बिषय सोचा है तुमने।

हालांकि मैं जानता हूँ कि अभी मुझे इस वर्ग कि टिप्पणियों को हासिल करने के लिए लंबा इंतज़ार करना पड़ेगा क्योंकि इस तरह कि टिप्पणिया अधिकतर वरिष्ठ ब्लागरों की पोस्टों को ही की जाती हैं। जबकि साफ साफ दिख रहा होता है कि टिप्पणी देने वाले ने पूरी पोस्ट पर सिर्फ सरसरी निगाह डाली हुई है उसे पढ़ा नहीं है। पढने का समय किसके पास है, और फिर अखाडे में जब सभी पहलवान हों तो सभी अपने को सम्पूर्ण समझते हैं तो दूसरे की जोर आज़माइश को कौन देखे.

नर्वस करने वाली टिप्पणियां ना करें।जैसे -

ठीक है, लिखते रहो। या कुछ और सोचा होता.

ऐसी टिप्पणियां अधिकतर स्थापित ब्लागरों द्वारा मेरे जैसे नये नवेले ब्लागरों की पोस्टों पर की जाती हैं पढ़ कर कुछ और लिखने की हिम्मत ही नहीं होती।

डराने वाली टिप्पणी ना करें -

अगर लिखना नहीं आता है तो क्यों घुस बैठे हो हम लोगों के बीच। अब तो जिधर से देखो मुंह उठाये अंतर्जाल पर चले आ रहे हैं. पहले सीखो, ब्लॉग देखो दूसरो को पढो फिर ब्लागर बनने की सोचना.

हालांकि ये डराने वाली टिप्पणी है परन्तु इससे मुझे इसलिए डर नहीं लगेगा क्योंकि ऐसी टिप्पणी सिर्फ स्थापित ब्लागर ही दे सकते हैं और ऐसी टिप्पणी में ५-७ पंक्तियाँ लिखना पड़ेंगी और अभी तक की गई टिप्पणियों की हालत देखकर मुझे नहीं लगता कि मुझ जैसे नौसिखिया ब्लागर पर कोई इतना समय बरबाद करेगा।

उनसे भी टिप्पणी नहीं चाहिए जिन्होंने बिना पढे सिर्फ ५-७ ब्लागरों की पोस्टों पर प्रतिदिन टिप्पणियां देने का नियम बना रखा है।

अब छोडिये भी, आप मेरे द्वारे आए मेरी बकवास पर सरसरी निगाह डाली इसके लिए धन्यवाद. (अगर पढ़ा भी है तो दिल से धन्यवाद). आप कैसी भी टिप्पणी देने के लिए स्वतंत्र हैं, पर बदले में मैं आपकी पूरी पोस्ट ध्यान से पढ़कर बेवाक टिप्पणी ही दे सकता हूँ जिसमें चापलूसी नहीं होगी, बेगारी नहीं होगी, मज़बूरी नहीं होगी.

Sunday, April 13, 2008

हम करें तो चोरी और वो करें तो .....

ये आंक्लित खपत क्या है? बिजली घर में एक सज्जन ने मुझसे पूछा तो मैंने उसे बताया कि जो लोग चोरी कर के बिजली का इस्तेमाल करते हैं उन को बिजली वालों द्वारा दी जा रही सज़ा को आंक्लित खपत कहते हैं.
"लेकिन मैं तो चोरी करता ही नहीं हूँ." वो सज्जन बोले,"फिर भी मेरी ६० यूनिट के साथ १०० यूनिट आंक्लित खपत लग कर बिल में आई हैं."
इसका जबाव मेरे पास नहीं था. शायद किसी के पास भी नहीं है. जब आंक्लित खपत के बारे में उपभोक्ता संगठन आवाज़ उठाते हैं तो विधुत मंडल के आका मासूमियत भरा जबाव देते हैं कि आंक्लित खपत के लिए सभी जोन को चेतावनी दे दी गई है फिर भी यदि किसी के बिल में आंक्लित खपत लग कर आती है तो उपभोक्ता उसकी शिकायत करें.
मैंने उस दिन बिजली घर में हो रही भीड़ में पता किया तो अधिकतर आंक्लित खपत के बिल ही थे. हर बिल में बिजली घर कि तरफ से एक वाक्य छपा आता है "बिजली कि बचत कीजिये." और जोन के अधिकारियों का कहना है कि बिल में कम से कम १०० यूनिट आना आवश्यक है. अगर किसी के बिल में इससे कम यूनिट आती है तो हम ये मान लेते हैं कि वो चोरी कर रहा है.
कैसा अजीव सा नियम है ये. एक व्यक्ति ईमानदारी से कम से कम बिजली का इस्तेमाल करता है तो उसे प्रोत्साहित किया जाता है कि वो बिजली अधिक जलाये. नहीं तो बिना बिजली का इस्तेमाल किए वसूली कि जाती है. यदि किसी अधिक जागरूक ने आंक्लित खपत कि शिकायत करने कि कोशिश कि तो उसे डरा दिया जाता है कि आवेदन दे जाओ हम चेक करने आयेंगे तुम्हारे यहाँ लोड कितना है. आम आदमी चुप्पी लगा जाता है क्योंकि उसकी समझ में बिजली वालों का घर में आना ही मुसीबत का आना है.
मध्य प्रदेश में दिए जा रहे बिलों में बिल के पीछे आंक्लित खपत की परिभाषा दी गई है.
आंक्लित खपत - मीटर बंद अथवा ख़राब होने की दशा में पिछले माहों की खपत के आधार अथवा अन्य उचित आधार पर निश्चत की जाती है.
मैंने एक ऐसा बिल देखा जिसने नया कनेक्शन लिया था और उसका पहला ही बिल था उसमें भी १०० यूनिट आंक्लित खपत के लगे थे जबकि उसकी कुल मासिक खपत मात्र ५० यूनिट थी. १५० यूनिट का बिल वो चुपचाप भर कर निकल गया. शिकायत करने के बारे में उसका कहना था. "सब चोर हैं किससे शिकायत करें. कमाल की बात ये थी की दी गई परिभाषा में उसके बिल में लगाई आंक्लित खपत कहीं फिट नहीं हो रही थी.
हमें उन बिजली चोरों के हिस्से की सज़ा भुगतना पड़ रही है जो चोरी भी करते हैं और बचने के रास्ते भी जानते हैं लेकिन हमारी सरकारों के पास इसका कोई हल नहीं है. कयोंकि उसका तो एक ही मूलमंत्र है वसूली करो कैसे भी कहीं से भी.

Tuesday, April 08, 2008

अंग प्रदर्शन फिल्मों में पहले अब और आगे


पुरानी फिल्मों में तो अंग प्रदर्शन होता ही नहीं था। धीरे धीरे समय बदला और फ़िल्म अभिनेत्रियों ने सफलता के लिए अंग प्रदर्शन का सहारा लेना प्रारम्भ कर दिया। जिन लोगों ने वी .शांताराम के समय की फिल्में देखीं हैं वे तो आज की फिल्मों में हो रहे अंग प्रदर्शन की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। लेकिन क्या करें ज़माना बदल गया है और ज़माने के साथ सभी परिभाषाएं भी बदलती जा रहीं हैं। जब हेलन ने फिल्मों में आईटम सोंग करना प्रारम्भ किया तो लोगों की मांग बढ़ गई और फिर आहिस्ता आहिस्ता वास्तविक अंग प्रदर्शन ने फिल्मों में पैर पसारना प्रारम्भ कर दिया।
अब तो हमें भी इस अंग प्रदर्शन की आदत सी हो गई है परेशानी उस समय प्रारम्भ हो जाती है जब हम उसका विरोध नहीं करते। पहले हमने धीरे धीरे उतरते हीरोइनों के वस्त्रों की आदत डाली फ़िर लगभग नग्न द्रश्य देखने की। हम फ़िर भी चुप रहे शायद हमारा भी स्वार्थ इससे जुडा हुआ था। लेकिन अब बेचैनी सी होती है जब इमरान हाशमी को अपने छोटे छोटे बच्चों के सामने हीरोइनों के वस्त्र उतरते देखते हैं।
सवाल ये है की अब इसके बाद क्या? कभी कभी ये सवाल कई लोगों को परेशान कर जाता है। लेकिन सवाल है और इसका जबाव भी हमें मालूम है। जब इतना कुछ हो सकता है तो क्या पता कल हमें बच्चों के सामने वो सब देखना पड़ जाए जिसकी आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते।